पंचायती राज चुनावों की घोषणा भले ही औपचारिक रूप से न हुई हो, लेकिन गांव-गांव में सियासी गतिविधियां तेज हो चुकी हैं। गली-मोहल्लों से लेकर चौराहों तक नुक्कड़ सभाओं और बैठकों का दौर चल पड़ा है। इसी के साथ राजनीतिक दलों ने भी चुनावी बिसात बिछानी शुरू कर दी है। वर्चस्व की जंग में प्रमुख दलों ने अपने-अपने खेमों में रणनीतिक चर्चाएं शुरू कर दी हैं और एक बार फिर मतदाताओं को लुभाने के लिए लोकलुभावन वादों का पिटारा खोलने की तैयारी कर रहे हैं।

जानकारों का मानना है कि इस बार के पंचायत चुनाव कांग्रेस और भाजपा, दोनों के लिए चुनौतीपूर्ण साबित हो सकते हैं। इन दोनों राष्ट्रीय दलों के पारंपरिक मतदाताओं में अब असमंजस की स्थिति बन रही है, क्योंकि स्थानीय स्तर पर पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच आपसी मतभेद खुलकर सामने आने लगे हैं। खास बात यह है कि इस बार मैदान में दो नए राजनीतिक गुट भी सक्रिय हो गए हैं, जो न केवल कांग्रेस और भाजपा के समीकरण बिगाड़ सकते हैं, बल्कि इनके बीच मतों का बंटवारा भी कर सकते हैं।
सूत्रों की मानें तो दोनों ही प्रमुख दलों में इस समय यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा है कि आखिर किस प्रत्याशी को अधिकृत समर्थन दिया जाए। हर खेमे में दावेदारों की लंबी कतार है और कहीं भी स्पष्ट नेतृत्व उभरता दिखाई नहीं दे रहा। इससे पार्टी कार्यकर्ताओं में असंतोष की भावना पनप रही है, जो अंततः हार की वजह भी बन सकती है।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि समय रहते अगर दलों ने अंतर्कलह को नहीं सुलझाया तो यह चुनाव में भारी पड़ सकता है। वहीं, नए गुटों के प्रवेश से मुकाबला त्रिकोणीय या चतुर्थकोणीय होने की संभावना है, जिससे चुनाव परिणाम अप्रत्याशित हो सकते हैं।
फिलहाल सभी दलों ने ‘जनता को साथ लाने’ की कवायद तेज कर दी है। कहीं सामूहिक भोज का आयोजन हो रहा है तो कहीं स्थानीय विकास योजनाओं के वादे दिए जा रहे हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि इस बार पंचायती राज की सत्ता की चाबी किसके हाथ लगती है।